महात्मा ज्योतिबा फुले                           जीवन परिचय                         फोटो गैलरी



  पिता का नाम श्री गोबिन्द राव माली
  जन्म 11 अप्रैल, 1827
  जन्म स्थान गाँव-खानबदी, जिला-सतारा (महाराष्ट्र)
  देहावसान 28 नवम्बर, 1890

श्रेय
  लड़कियों और दलितों के लिए पहली पाठशाला खोलने का. - 1848
  किसानों और मजदूरों के हकों के लिए पहली बार संगठित प्रयास - 1880

स्थापना
  सत्य शोधक समाज - 1873
  पूना लाइब्रेरी - 1852

प्रकाशन
  समाचार पत्र - दीन बन्धु

प्रमुख रचनाएँ
  तृतीय रत्न - 1855
  शिवाजी जीवन वृतांत - 1869
  ब्राह्मणांचे कसब - 1869
  गुलाम गिरी - 1873
  किसान का कोड़ा - 1883
  सत्सार - 1885
  ईशारा - 1885
  अछूतों की कैफियत - 1885
  सार्वजनिक सत्य धर्म - 1889

सम्मान
  भारत सरकार द्वारा डाक टिकिट जारी।
  महाराष्ट्र विधान सभा के मुख्य द्वार प्रतिमा की स्थापना।
  महात्मा फुले कृषि विश्वविद्यालय की अहमदाबाद में स्थापना।
  महात्मा जी के निवास स्थान को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जाना।
  महात्मा फुले के नाम पर उŸार प्रदेश में जिले का निर्माण।

सामाजिक शैक्षणिक क्रांति के प्रणेता
  महात्मा ज्योतिबा फुले सामाजिक शैक्षणिक क्रांति के एक महान् अग्रदूत थे। 19वीं सदी के मध्य में उन्होंने एक महान् सामाजिक आंदोलन का सूत्रपात किया। जिसके तहत वे किसानों, मजदूरों, महिलाओं और तमाम पिछड़े तबके के लोगों को अधिकार दिलाने और उनमें स्वाभिमान एवं आत्म गौरव की भावना जगाने के लिए, जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे।
 
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने ‘‘ज्योति बा’’ को सच्चा ‘‘महात्मा’’ कहा जबकि भारत रत्न डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने उन्हें अपना गुरू माना, इस युग पुरूष के विचारों और कार्यों से उन्होंने प्रेरणा प्राप्त की थी। बाबू जगजीवन राम के अनुसार- महात्मा फुले दलित चेतना की दिशा में ज्योति पुरूष थे। उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य-न्याय और मानव अधिकारों को प्राप्त करना था।
 
महाराष्ट्र के सतारा जिले के एक छोटे से गाँव खानबदी में 11 अप्रैल, 1827 को ज्योति बा फुले का जन्म गोबिन्द राव माली के घर पर हुआ। जब ज्योति बा एक वर्ष के थे उनकी माँ चिमना बाई का देहांत हो गया। पिता ने ज्योति को माँ-बाप दोनों का प्रेम दिया, ज्योति बा की आरम्भिक शिक्षा घर तथा मराठी पाठशाला में हुई थी। संकुचित विचारधारा रूढ़ीवादिता, जातिवाद और छुआछूत के उस माहौल में कट्टरपंथी हिन्दुओं के कारण अनेकों के साथ ज्योति बा को भी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ी। ज्योति बा अपने परिवार के काम में जुट गए। इसी दौरान 1840 में उनका विवाह सावित्री बाई से हुआ। लोगों के समझाने पर गोबिन्द राव अपने पुत्र की पढ़ाई को आगे बढ़ाने पर राजी हो गए। इस प्रकार तीन वर्ष तक पढ़ाई से वंचित रहने के बाद 1841 में ‘‘ज्योति बा’’ ने एक मिशनरी स्कूल में दुबारा दाखिला लिया और बड़े ध्यान एवं मनोयोग से अपनी पढ़ाई पुनः शुरू की।

तत्कालीन स्थिति
  पेशवा बाजीराव द्वितीय के शासन काल में उन दिनों किसान और मजदूरों पर भयंकर अत्याचार किए जाते थे, समय पर लगान नहीं देने पर उनके बच्चों के शरीर पर उबलता तेल डाला जाता, तवों को गर्म कर उन पर किसानों को खड़ा कर दिया जाना नथा उनकी पीठ पर बडे़-बड़े शिलाखण्ड रख दिए जाते। किसानों को उल्टा लटकाकर उनकी नाक में मिर्च का धुआं छोड़ा जाता था। अकाल और सूखे की स्थिति में भी किसान मजदूरों की इस सजा में कोई रियायत नहीं की जाती थी।
 
महिलाओं की दुर्दशा की तो कोई सीमा नहीं थी। बचपन में शादी हो जाना, अनपढ़ बने रहना, घर की चार दीवारी में कैद रहना और यदि दुर्भाग्य से कोई बचपन में ही विधवा हो जाए तो हर तरफ से तिरस्कार, समाज प्रथा के अनुसार विधवा लड़की के बाल काट दिये जाते थे। अक्सर औरतों को ऐसे कामों की सजा दी जाती थी जिनसे उनका वास्ता ही न रहा हो।
 
दलित और अछूतों के साथ तो पशु से भी बदतर व्यवहार किया जाता था। पढ़ने-लिखने, पूजा-पाठ करने, भगवान के दर्शन और वेद पाठ सुनने की भी सख्त मनाही थी। ऐसा करने की कोशिश करने वालों के कानों में गर्म सीसा और पारा तक डाल दिया जाता था।

संकल्प और कार्य
  ऐसी अमानवीय स्थितियों ने ज्योति बा के मन में हिन्दु धर्म की विसंगतियों, ऊँच-नीच और जाति-पाति की भावना से बड़ी उथल-पुथल पैदा कर दी। उन्होंने जाना कि समस्त समस्याओं की जड़ महिलाओं, पिछड़ों और अछूतों का अनपढ़, अज्ञानी और असंगठित रहना है।
 
ज्योति बा ने आदमी-आदमी के बीच इस अन्तर और महिलाओं की स्थिति को देखकर संकल्प किया कि वे स्त्रियों को समाज में पुरूषों की बराबरी का दर्जा दिलाएंगे तथा पिछडे़ दलितों और अछूतों को समाज की मुख्य धारा में लाकर राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक समानता पर आधारित एक शोषण रहित समाज बनाएंगे। अपने संकल्प को मूर्त रूप देने कीे दिशा में पहले कदम के रूप में ज्योति बा ने 1 जनवरी 1848 को पूना में बालिका विद्यालय की स्थापना की। वह किसी भारतीय द्वारा स्थापित देश का पहला बालिका विद्यालय है। ज्योति बा की धर्मपत्नि सावित्री बाई इस विद्यालय की पहली शिक्षिका बनी। इस विद्यालय को चलाने के लिए फुले दम्पति को अथक प्रयास करने पड़े। 15 मई, 1848 को फुले दम्पति ने अछूतों के लिए देश में पहली पाठशाला खोलकर वंचितों, दलितों, पिछड़ों एवं महिलाओं को समाज की मुख्य धारा में जोड़ने के अपने आंदोलन को आगे बढ़ाया।
 
सनातनी लोगों ने धर्म और शास्त्रों के नाम पर ज्योति बा और उनके स्कूल का कड़ा विरोध किया। पर ज्योति बा इस सब की परवाह किये बिना अपने काम में जुटे रहे। सनातनी लोगों ने अंतिम प्रयास के रूप में ज्योति बा के पिता को डरा-धमका कर दोनों पति-पत्नि को घर से निकलवा दिया। समस्या और कठिनाइयों के कारण ज्योति बा को एक बार फिर अपना विद्यालय बंद करना पड़ा। लेकिन अपने सुधारवादी ब्राह्मण मित्र सदाशिव बल्लाल, गोबिन्दे और मुंशी गफ्फार बेग की सहायता से थोड़े समय बाद ही उन्होंने स्कूल दुबारा शुरू कर दिया। ज्योति बा का दलितों और महिलाओं को शिक्षित करने का काम लगातार आगे बढ़ता रहा। संकट उन्हें न तोड़ सके और न ही रोक सकें। हर समस्या और बाधा के बाद वे और मजबूत होकर आगे बढ़े। मानवता, समानता और समता का उनका आन्दोलन लगातार जारी रहा।
 
ज्योति बा ने किसान, मजदूरों और कामगारों की आवाज को मजबूत करने के लिए जनवरी 1877 में ‘‘दीन बन्धु’’ नाम से एक साप्ताहिक अखबार शुरू किया। उन्होंने किसानों और मजदूरों की बेहतरी और उनकी वाजिब मांगों के लिए एक जुट होकर संघर्ष करने के लिए प्रेरित, शिक्षित और संगठित भी किया। मजदूर आंदोलन की नींव डालने वाले पहले नेता ज्योति बा फुले ही हैं। फुले के सहयोग और प्रयासों से उन दिनों किसान और मजदूरों के हितों की रक्षा और ‘‘सत्यशोधक समाज’’ के प्रचार हेतु ‘‘अंबलहरी’’ ‘‘दीनमित्र’’ एवं ‘‘किसानों का हिमायती नाम’’ से अन्य अखबार भी प्रकाशित किए गए।
 
अपने अखबारों-‘‘मराठा’’ एवं ‘‘केसरी’’ में कोल्हापुर रियासत के विरुद्ध छापने के कारण बाल गंगाधर तिलक और गोपाल गणेश आगरकर को चार मास की सजा सुनाई गई। ज्योति बा ने ऐसे कठिन समय में न केवल दोनों की आर्थिक मदद करवाई बल्कि जेल से छूटने पर उनका सभाओं के माध्यम से जगह-जगह स्वागत भी करवाया। कांग्रेस की स्थापना के समय ज्योति बा ने महाराष्ट्र की अनेक सभाओं में लोगों को कांग्रेस का प्रचार करते हुए, उसके कार्य को समझाया।

दर्शन
  ज्योति बा के अनुसार परमेश्वर एक है और सभी मानव उसकी संतान हैं। उस परमपिता की भक्ति और पूजा के लिए न तो किसी मध्यस्थता की आवश्यकता है और न ही किसी विशेष स्थान मंदिर आदि की। धर्मग्रंथ ईश्वर द्वारा बनाए नहीं हो सकते। समाज में स्त्री-पुरुष का दर्जा बराबर है। शिक्षा पुरुष एवं स्त्री दोनों के लिए समान रूप से आवश्यक है। उनका मानना भा कि धर्म का उद्देश्य आत्मिक विकास ही नहीं बल्कि मानवता की सेवा करना भी है। इन्हीं विचारों को आधार बनाकर ज्याति बा ने 1873 में ‘‘सत्य शोधक’’ समाज की स्थापना की। सत्य शोधक समाज ब्राह्मण वर्चस्व और उच्च जातियों द्वारा समाज की पिछड़ी, दलित जातियों के बौद्धिक शोषण तथा सामाजिक, सांस्कृतिक उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध प्रतीकात्मक रूप से एक जन आंदोलन बनकर सामने आया। इसके प्रभाव के कारण विवाह आदि मांगलिक कार्य पंड़ित-पुरोहितों के बिना ही सम्पन्न होने शुरू हो गए थे।
 
ज्योति बा फुले वर्ण व्यवस्था के कट्टर शत्रु थे। उनका मानना था कि मनुष्य की श्रेष्ठता का प्रमाण उसकी जाति नहीं वरन् उसके अपने गुण है। हिन्दुओं में ऊँच-नीच की भावना पैदा करने वाली इस व्यवस्था वर उन्होंने कठोरता से लगातार आघात दिए। उनका मानना था कि हिन्दु समाज के पतन और इनमें महिलाओं, पिछड़ों एवं दलितों के शोषण का एक मात्र कारण वर्ण व्यवस्था ही है। उनकी कोशिश हिन्दु समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना करना था। उन्होंने मुसलमान एवं गैर हिन्दुओं के साथ भी समान व्यवहार की पुरजोर वकालात की।
 
ज्योति बा फुले के 61 वर्ष और सामाजिक जीवन के 40 वर्ष पूरे करने पर मई 1888 में बम्बई में एक विशाल जन समुदाए के बीच इस युग पुरुष को ‘‘महात्मा’’ की उपाधि से विभूषित किया गया। ज्योति बा ने उस अवसर पर कहा-यह अल्प सा कार्य मैंने ईश्वर की प्रेरणा से किया है। मैैं आज तक यही मानता रहा हूँ कि जन सेवा ही सच्ची सेवा है और यह मैं आगे भी करता रहूँगा। जुलाई, 1888 में ज्योति बा को लकवा मार गया। इससे उनके शरीर का दायां हिस्सा बेकार हो गया, उस पर उन्होंने बांये हाथ से लिखते हुए अपना ‘‘सार्वजनिक सत्य धर्म’’ नामक ग्रंथ पूरा किया। लेकिन दिसम्बर 1888 में लकवे के दूसरे आक्रमण ने उन्हें तोड़ दिया। इस बीमारी से वे उठ नहीं सके और अन्ततः 28 नवम्बर 1890 को वे चिर निद्रा में लीन हो गए। एक दिव्य ज्योति परमात्मा में विलीन हो गई।
 



ऐसी महान् आत्माओं को हमारा शत् शत् नमन। आइये, ऐसे महामानवों के अधूरे कार्यों, संकल्पों और सपनों का पूरा करने की, अब, हम सब मिलकर कोशिश करते हैं।
Source : http://www.mjprs.org