महात्मा ज्योति बा फुले   

महात्मा ज्योति बा फुले
सामाजिक - शैक्षणिक क्रान्ति के प्रणेता

महात्मा ज्योति बा फुले ने 19वीं सदी के मध्य में एक महान शैक्षणिक - सामाजिक आन्दोलन का सूत्रपात किया। जिसके तहत वे जीवन पर्यन्त किसानों, मजदूरों, महिलाओं और तमाम पिछडे, वंचित तबके के लोगों को उनके अधिकार दिलाने और उनमें स्वाभिमान एवं आत्म-गौरव की भावना जगाने के लिए संघर्ष करते रहे।

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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ज्योति बा को सच्चा ‘महात्मा कहा, जबकि भारत रत्न डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने उन्हें अपना गुरू माना, इस युग पुरूष के विचारों और कार्यों से उन्होंने प्रेरणा प्राप्त की थी। बाबू जगजीवनराम के अनुसार महात्मा फुले दलित चेतना की दिषा में ज्योति पुरूष थे। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य आम आदमी को न्याय और मानवाधिकार दिलाना था।

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ज्योति बा फुले वर्ण व्यवस्था के कट्टर शत्रु थे। उनका मानना था कि मनुष्य की श्रेष्ठता का प्रमाण उसकी जाति नहीं ,वरन् उसके अपने गुण है। हिन्दुओं में ऊंच-नीच की भावना पैदा करने वाली इस व्यवस्था पर उन्होंने लगातार कठोर आघात किये। वास्तव में महात्मा फुले एक क्रियाषील दार्षनिक थे।

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11 अप्रैल, 1827 को महाराष्ट्र में सतारा जिले के खानबड़ी गांव में गोविन्द राव माली के घर ज्योति बा फुले का जन्म हुआ।

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ज्योति बा जब एक वर्ष के थे, उनकी माँ का निधन हो गया। पिता गोविन्द राव ने ज्योति बा को पिता के साथ माँ का प्यार भी दिया।

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ज्योति बा ने बड़ी लगन और मनोयोग से एक मराठी पाठषाला में अपनी पढ़ाई शुरू की।

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लेकिन उन दिनों जातिवाद, रूढ़िवादिता आदि संकुचित विचारधाराओं के चलते कट्टरपंथी हिन्दुओं के कारण ज्योति बा को पाठषाला छोड़नी पड़ी।

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ज्योति बा अपने परिवार के कार्य में पिता का हाथ बटाने लगे। इसी बीच सन् 1840 में ज्योति बा का विवाह सतारा जिले के नाय नामक गांव की सावित्री बाई से कर दिया गया।

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लम्बे प्रयासों के बाद लोगों ने गोविन्द राव को अपने कुषाग्र और प्रतिभाषाली बेटे को आगे पढ़ाने के लिए राजी कर लिया।

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तीन वर्ष के बाद ज्योति बा एक बार फिर स्कूल जाने लगे। लेकिन इस बार उन्होंने मराठी के बजाए मिषनरी स्कूल में प्रवेष लिया।

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पेषवा बाजीराव द्वितीय के शासन काल में उन दिनों किसानो-मजदूरों पर क्रूर अत्याचार किये जाते थे। उनके बच्चो के शरीर पर उबलता तेल डाला जाता था।
किसानों - मजदूरों की पीठ पर षिलाखण्ड रखे जाते थे।
किसानों - मजदूरों को जलते तवों पर खड़ा किया जाता था।


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महिलाओं की स्थिति दयनीय थी।
बचपन में शादी हो जाती थी।
पढ़ाई - लिखाई से दूर रखा जाता था।
विधवाओं का मुंडन करा दिया जाता था।


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दलितों - अछूतों की स्थिति पषुओं से भी बदतर थी।
पढ़ने - लिखने और पूजा-पाठ करने तथा ईष्वर के दर्षन करने की सख्त मनाही थी।
उनको अपनी पीठ के पीछे झाडू बांधकर चलना पड़ता था, ताकि उनके पद चिन्ह मिट जाए।
उन्हें जमीन पर थूकने आदि की मनाही थी, इसके लिए वे अपने गले में थूकदान लटका कर चलते थे।


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हिन्दू धर्म की ऊंच-नीच और जांत-पांत की इन अमानवीय स्थितियों ने ज्योति बा के मन को विचलित कर दिया।

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उन्होंने संकल्प लिया कि वे महिलाओं, पिछड़ों, दलितों और अछूतों को समाज की मुख्य धारा में लाकर राजनैतिक, शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक समानता पर आधारित एक शोषण रहित समाज बनायेंगे।

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अपने संकल्प को मूर्त्तरूप देने के लिए 1848 में ज्योति बा ने महिलाओं और अछूतों के लिए पूणा में एक विद्यालय खोला। देष में इस प्रकार का यह पहला विद्यालय था।

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महिला षिक्षक की कमी को पूरा करने के लिए ज्योति बा ने पहले स्वयं अपनी पत्नी सावित्री बाई को पढ़ाया।

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सावित्री बाई ने षिक्षित होने पर विद्यालय में पढ़ाना शुरू कर दिया। सावित्री बाई को देष की पहली महिला षिक्षक बनने का गौरव प्राप्त है।

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महिला और अछूतों की पढ़ाई को पाप समझने वाले सनातनी लोगों ने फुले दम्पत्ति को महिला और अछूतों को षिक्षा देने के काम से रोकने के अनेकों प्रयास किये। उन पर पत्थर, गोबर आदि फेंके और गाली दी।

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पर ज्योति बा के संकल्प के आगे यह सब बेकार गया। सनातनी लोगों ने अपने अंतिम प्रयास के रूप में ज्योति बा के पिता गोविन्द राव को डरा-धमका और समझा-बुझाकर उनके द्वारा ज्योति बा और सावित्री बाई को घर से निकलवा दिया।

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अनेकों कठिनाइयों के कारण फुले दम्पत्ति को अपना विद्यालय बन्द करना पड़ा।

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लेकिन अपने सुधारवादी ब्राह्मण मित्र सदाषिव बल्लाल गोविन्दे और मुंषी गफ्फार बेग की मदद से ज्योति बा ने अपना विद्यालय फिर से शुरू कर दिया।

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एक और ज्योति बा विद्यालयों की संख्या बढ़ाते रहे, दूसरी ओर उन्होंने मजदूरों और किसानों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाते हुए, उन्हें वे संगठित करने लगे । ज्योति बा ने उनको सहकारिता और ट्रस्टीषिप अपनाने के लिए प्रेरित किया।

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ज्योति बा के अनुसार ईष्वर की पूजा के लिए किसी विषेष व्यक्ति की आवष्यकता नहीं है और नही किसी विषेष स्थान मन्दिर आदि की। धर्म ग्रन्थ ईष्वर द्वारा बनाए नहीं हो सकते। षिक्षा - पुरूष एवं नारी दोनों के लिए जरूरी हैं धर्म का उद्देष्य मात्र आत्मिक विकास करना ही नहीं मानवता की सेवा करना भी है। इन्हीं विचारों को आधार बनाकर ज्योति बा ने 1873 में ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना की। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य - न्याय और मानव अधिकारों के लिए संघर्ष बन गया था।

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मजदूरों और किसानांे की आवा को मजबूत और ‘सत्य शोधक समाज’ के प्रचार करने के लिए जनवरी, 1877 से उन्होंने ‘दीनबन्धु’ नाम से एक अखबार निकालना शुरू कर दिया।

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1882 में बाल गंगाधर तिलक और गोपाल गणेष आगरकर ने अपने अखबारों - ‘मराठा’ और ‘केसरी’ में कोल्हापुर रियासत और अंग्रेज एजेन्ट के कारनामों का खुलासा किया, इसके दण्ड स्वरूप दोनों को 4 मास की सजा हुई। ज्योति बा ने दोनों की आर्थिक मदद करवाई तथा रिहाई के बाद जगह-जगह पर तिलक और आगरकर के स्वागत में अनेकों सभाएं आयोजित करवाईं।

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1885 में कांग्रेस की स्ािापना के समय ज्योति बा ने अनेक सभाओं में लोगों को, कांग्रेस का प्रचार करते हुए उसके कार्य को समझाया।

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मार्च, 1888 में महारानी विक्टोरिया के पुत्र ड्यूक ऑफ कनॉट की भारत यात्रा पर पूणा में एक भोज का आयोजन किया गया। वहां ज्योति बा एक गरीब किसान के वेष में पहुँचे और ड्यूक ऑफ कनॉट के सामने साहसपूर्वक भारत की सही तस्वीर रखते हुए कहा कि वे अपनी माँ (महारानी विक्टोरिया) से जाकर कहें कि असली भारत देहात और गांवों में बसता है, यहां के निवासी गरीब ही नहीं, अषिक्षित और अनपढ़ भी है, पहले इन्हें षिक्षित बनाने की आवष्यकता है।

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ज्योति बा द्वारा समाज के तमाम पिछड़े वर्ग को षिक्षित और जागरूक बनाने के उनके आंदोलन के 40 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष में मई, 1888 में बम्बई में एक विषाल जन समुदाय के बीच ज्योति बा को ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया गया। ज्योति बा तब 61 वर्ष के हो चुके थे।

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जुलाई, 1888 में ज्योति बा का लकवे के कारण शरीर का दाहिना हिस्सा बेकार हो गया। अपने उद्देष्य के प्रति समर्पित ज्योति बा ने बायें हाथ से काम करना शुरू कर दिया। इस दौरान ज्योति बा ने अपना ग्रन्थ ‘सार्वजनिक सत्यधर्म’ बायें हाथ से लिखकर पूरा किया।

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महात्मा फुले ने लोगों को षिक्षित और जागरूक बनाने के उद्देष्य से अनेकों ग्रन्थ लिखेंः
तृतीय रत्न (नेत्र) – 1855
ब्राह्मणचे कसब – 1869
षिवाजी जीवन वृत्तांत – 1869
गुलामगिरी – 1873
किसान का कोडा - 1883
सत्यसार – 1885
ईषारा (चेतावनी) – 1885
अछूतों की कैफियत – 1885
सार्वजनिक सत्य धर्म - 1889


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जुलाई, 1888 को पडे लकवे से ज्योति बा ठीक नहीं हो सके। दिसम्बर, 1888 में उन पर लकवे का दूसरी बार हमला हुआ। इससे ज्योति बा निढाल हो गए और अन्ततः 28 नवम्बर, 1890 को वे चिर निद्रा में लीन हो गये। एक दिव्य ज्योति परमात्मा में विलीन हो गई।

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महात्मा फुले के सम्मान में किए गए प्रमुख कार्य-
भारत सरकार द्वारा डाक टिकिट जारी

महाराष्ट्र विधानसभा के प्रमुख द्वार पर प्रतिमा की स्थापना
महात्मा फुले कृषि विष्वविद्यालय की अहमदाबाद में स्थापना
महात्मा जी के निवास स्थान को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जाना
महात्मा फुले के नाम पर उत्तर प्रदेष में जिले का निर्माण


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सावित्री बाई
महात्मा फुले के आंदोलन में सावित्री बाई का सबसे महत्वपूर्ण योगदान तब हुआ, जब उन्होंने अपने पति के निधन के बाद ‘‘सत्य शोधक समाज’’ का 1891 से लेकर 1897 तक सफल नेतृत्व किया। सावित्री बाई प्रतिभा सम्पन्न लेखिका एवं कवियित्री थीं। उनका पहला कविता संग्रह ‘‘काव्य फुले’’ नाम से 1854 मे प्रकाशित हुआ।


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